गौरी,थारा!
गोळ-गळा मं घूंट उतरती,
ज्यूं की ज्यूं दीखै छै।
हांसी हंस'र उळीचै मोती,
हिरदा मं हरिद्वार दीखै छै॥
ईं काया मं सारा तीरथ-
हार-हार हींजै छै।
थारा गौळ गळा...।

लुळ जावै काया की तुळछां,
बा'ळ जठी की बागै।
ऐक चढै! दूजो उतरै,
फूलां की ढेरी आगै॥
अतनों नरम काळज्यो!
सोई बा'ळ कै सम जागै।
दिया की लू लागै अर्,
सोना की फांस भागै।
बचरम खा'र लोग बूझै-
या कोराणी कींखै छै?
थारा गौळ...

आंजबा मं न आवै,
काजळ अतनों बेबस छै।
झोल थमैं न जोबण को,
काया कै असी कुणस छै॥
सतरंगी आभा हाळो,
नैणां मं इन्द्र धनुस छै॥
जे न जाणै व्ह कह दे छै,
ईं कै कैई मणस छै॥
दूबळी अर् दो असाढ़,
कर-कर बच्यार सीजै छै।
थारा गौळ...

आंख्यां कांईं जाणै तो,
हीरा-मोत्यां का चांठां।
और बरसबो यांको,
जोबण खाय पछाटां॥
कदी होठ सूखै तो पड़ज्या,
कदी कण्ठ मं कांटां।
यां बातां का घाव पराणां,
राम भरै कद पाटा॥
इन्द्र भरै पाणी जद थारै-
दूजा कांईं भाव बिकै छै।
थारा गोळ...।

सारस-संख जसी गरदन का नाऊं सुण्यां छै अब तक।
थारै,तीन!गळा मं रेखां,
तीन देवता रक्षक।
आंख्यां मच जावै छै सब की,
कांईं न आवै अक बक।
आ म्हारी नौ -नाड़्यां मं रमजा,
मरवण मरती दम तक।
सारा पाप वाड़ ल्यूं थारा-
म्हारो धरम लिखै छै।
थारा गौळ...।

स्रोत
  • सिरजक : विष्णु विश्वास ,
  • प्रकाशक : कवि रै हाथां चुणियोड़ी
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