सै जग रा भरतार
आज म्हैं आयो थारे द्वार!

(1)

थाळी बाजी, जद मायड़ री
हरखी कितरी देह?
कितरै हेत-हुलास-हास सूं —
निरख ढ़ोळियो नेह!

माता दियो दूध रै सागै
कितरो हेत-दुलार!
सै जग रा भरतार
आज म्हैं आयो थारे द्वार!


(2)

बाळपणैं में लोट धूड़ में
बोल तोतळा बोल।
इन्द्रासण सूं ई धरती रो
राख्यो मूंघो मोल।

साथ्यां साथै रच्यो धूड़ में
सोनै रो संसार!
सै जग रा भरतार
आज म्हैं आयो थारे द्वार!

(3)

मोती जिसड़ा पीलू चुग नैं
जाळां हेठै खेल।
पकड़ कमीज चलाई छुक-छुक
खूब जोर सूं रेल।

हिरण चौकड़ी भरता व्है ज्यूं
रम्या खेत रै पार।
सै जग रा भरतार
आज म्हैं आयो थारे द्वार!

(4)

सपन-परी रै साथै
सपनां में उड़ियो आकास!
कितरो है आणंद
कल्पना रो कितरो विसवास!

कितरा मैं’ल माळिया छिणिया
कितरा गूंथ्या हार!
सै जग रा भरतार
आज म्हैं आयो थारे द्वार!

(5)

जद लग रग में रगत घणैरो
हो उछाह-अनुराग।
रोज खेलतो हो लाली री
मधुर-गंध सूं फाग!

बीत गई दो दिन में ई
जोबन री रतन-बहार!
सै जग रा भरतार
आज म्हैं आयो थारे द्वार!

(6)

चांदी री थाळी रै ऊपर
ज्यूं सोना री रेख।
कितरा गाया गीत प्रीत रा
गाल गुलाबी देख!

हिरणांखी नैं घणैं हेत सूं
देखी बारम्बार।
सै जग रा भरतार
आज म्हैं आयो थारे द्वार!

(7)

गूंथ्या कितरा जाळ आज लग
गूंथ्या कितरा फन्द।
दुनियां में बाकी नीं राख्यो
म्हैं कोई छळ-छन्द!

कांई हाथ न आयो म्हारै
छल-छन्दां रो सार।
सै जग रा भरतार
आज म्हैं आयो थारे द्वार!

(8)

अब बसन्त बीत्यो; आयो है
उकळ उनाळो खूब।
बिखरी फूल-पांखड़यां
सूखी है जीवण री दूब।

काळ चक में भमतो-भमतो
गयो जमारो हार!
सै जग रा भरतार
आज म्हैं आयो थारे द्वार!

(6) 

अब तो चूस्योडो आंबो है
नैं सूखोड़ो फूल।
अरपित है थांनै मन भमतो
अधर-भंवर रै झूल।

भलै भमावो भमर-जाळ में
भलै उतारो पार!
सै जग रा भरतार
आज म्हैं आयो थारे द्वार!
स्रोत
  • पोथी : सगळां री पीड़ा-मेघ ,
  • सिरजक : नैनमल जैन ,
  • प्रकाशक : कला प्रकासण, जालोर ,
  • संस्करण : प्रथम संस्करण
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