जरा अठी नै भी देखण री किरपा करी, इण लटकतै चितराम कानी भी आंख उठावो तो—‘हियै में क्रोध रो भभकतो ज्वाळामुखी दबायां, प्रलयकाळ रा उमड़ता मेघां री ज्यूं मुख पर काळा केसां री लटां लुमायां, लुहार री धूकणी-सी नासा फुलायां, एक जवान मोट्यार हाथ में सरकस रो हण्टर लियां अर दूजो हाथ भूखै केसरी री ज्यूं आंचळ पर लगायां, एक पोयण फूल सी कंवळी धण री नागी कमर पर क्रूरता रा भीसण चितराम बणार्‌यो है। खून सूं तर हुयै लपकतै हंटर री अवाज साफ-साफ सुणीजै है अर सागै पगां में घायल पड़ी, ठळकता आंसूड़ा सूं डबाडब भरी आंखड़ल्यां नै जरा बन्द कर्‌यां, देही री करुणा भरी ऊसक्यां भी। भौ सूं कांपती भीतां सूं टूट’र पड़ी तसवीरां, खून सूं लाल ही।’

एक दानवी रूप है, पण इण देही में भी मिनखपणै रो कंवळो हियो बिराजे है। जे जरा भी संका होय तो सुणो, हवा में उड़तो चितराम इण री आखी बात (का’णी) छिपायां बैठ्यो है।

इण चितराम रो नायक बम्बई नगरी रो वासी एक साधारण क्लर्क है। दोपारी री गरमी रै बाद एक दिन बिरखा बरसी अर मौसम में भी नयो रंग छायो। मील रा क्लर्क फाइलां बन्द करदी अर गप लड़ावण रै खातर दो-दो च्यार-च्यार एक ठोड़ भेळा हुआ। मिस्टर सर्मा, मि. सिन्हा, मि. वर्मा सारा जणा विराजमान हा पण बाबू हरनाथ निजर आया कोनी। उण रै बिना तो महफल फीकी ही पड़ी है। दो जणा ऊठ्या, एक फाइल बन्द करी अर दूजो हाथ पकड़’र खींच ल्यायो, बाबू हरनाथ बीच में बिराज्या अर बाकी सारा जणा उणरै च्यारूंमेर बैठ्या। अवध री नवाबसाही रा किस्सा सरू हुया। दूजी पळ में घंटी बाजी, सारा जणा भाग-भाग, फाइलां उठा, उलटण लाग्या, पण बाबू हरनाथ तो बीच में घिर्‌योड़ा हा, भाग सक्या कोनीं। उणनै तो होस जद आयो खटखट करता मैनजर सा’ब सामीं छाती खड़्या हुया। हरनाथ रो मुख पीळो पड़ग्यो पण मैनेजर सा’ब लाल हो बोल्या—

‘हरनाथ, मील रो ओफिस है, आप नै जरा भी ख्याल होणो चाहिजै। म्हानै अठै सांस लेवण री भी फुरसत है कोनी अर अठै आप महफल लगायां बैठ्या हो। जाओ घरां पधारो, आपरो सारो हिसाब काल संझ्या तक नक्की।’

बाबू हरनाथ पर-कट्यै पंखेरू री ज्यूं गरीब आंख्यां उठाय मैनेजर कानी देख्यो, फेरूं च्यारूं मेर फाइलां में सिर दियां बैठ्या महफल रा सोखीनां पर निजर नाखी। हरनाथ लाम्बा डग भरतो पैड्यां उतर्‌यो, एक टीस दिल में लियां।

(2)

बम्बई नगरी है। अठै पैदल चालणो बाबू लोगां री इज्जत रै खिलाफ है, सो बाबू हरनाथ नै भी बस पकड़णी है। हरनाथ बस स्टैंड पर चढ़ती लुगायां-मोट्यारां री लैण में जा भेळो हुयो। जद हरनाथ रो नम्बर आयो तो बस कंडक्टर हाथ हला दियो अर घंटी बाजताई बस भीर हुई।

हरनाथ हैरान हो, बस री पूठ ताकतो ही रहग्यो। देखतां-देखतां सारी लैण बस में जा बैठी अर मेरै एक रै खातर सीट ही कोनी। जठै पचास नेड़ा आदमी बैठ्या, बठै मैं भी तो बैठ सकै हो, गाडै में छाजलै रो बोझ के बेसी हो?

पैंट री जेब सूं हाथ निकाळ’र मूंडै पर फेर्‌यो अर एक निसांस रै साथै बम्बई री लांबी-चौड़ी सड़कां पर चालण लाग्यो। हियै में भावना रो तूफान अर चाल में पून रो सो वेग।

बरखा रै बाद अब नाळियां री सफाई हुवै ही। जगां-जगां पटड़्यां पर ढक्कण खुल्ला पड़्या हा। हरनाथ रो तो माथो कल्पना री जंजाळ नगरी हो, आगै-पाछै रो ध्यान हो कोनी। चालतां-चालतां पग एक नाळी में तिसळग्यो। सारा कपड़ा खराब होग्या जद ध्यान टूट्यो। कपड़ा झड़काय बाबूजी फेर रवाना हुया। किणी तरै घरां पूग्या।

(3)

गौरी जद हरनाथ री बिगड़ी सकल देखी तो मूंडो मोड़’र पूठ फेर कर खड़ी होगी। बाबू हरनाथ गौरी री हरकत देखी तो घणी रीस ल्यायो, पण लोही री घूंट सी गळै उतारग्यो। सदा हंस-हंसकर बातां करणहाळी लाडली धण रो अपमान जिंदगी में पै’ली बार ही देख्यो। होणी तो चाहिजै ही थोड़ी हमदर्दी दिखा, उणरो दुखड़ो सुणती अर दोय मीठा बैण सुणा हिमळास देती अर धीरज बंधाती। पण हरनाथ नै अठै भी निरासा ही लाधी।

हरनाथ सीधो आपरै कमरै में गयो। जूता उतार्‌या, कपड़ा खोल्या अर अंगरेजी रै एक अखबार नै उठा, नौकरी री ‘वान्ट्स’ देखण लाग्यो। गौरी जीमण री प्लेट परूस ल्याई’र मन में खिज्योड़ी मेज रै पास खड़ी होगी। बा गौर सूं हरनाथ नै ओळमैं सूं भरी आंख्यां सूं देखण लागी।

‘ल्यो जरा, इणरी भी सुदबुद ल्यो, कतरी बार हुई उड़ीकतां उड़ीकतां।’ गौरी प्लेट दिखा’र बोली

‘जरा गम खाओ, मैं थोड़ी देर नैं जीमस्यूं।’ बाबू हरनाथ अखबार में ध्यान लगायां ही जवाब दियो। ‘तो म्हारै बीजो काम कोनी के?’

हरनाथ थोड़ी देर तो जवाब दियो कोनी, फेरूं अखबार रख'र कह्यो—

‘हां मनैं काल नौकरी री तलास में जाणो है। कपड़ा काल सुबह तक साफ हो ज्याणा चाहिजै। बा नौकरी तो हाथां सूं निकळगी।’

‘पण मनैं तो सांस लेवण नै भी तो टेम कोनी, म्हारै सूं तो कोनी धुपै, कोई बीजो इन्तजाम करल्यो।’ गौरी साफ-साफ नटगी।

‘तो घणी आछी बात। आप तो पधारो।’ हरनाथ रीस खा’र कह्यो।

‘इण प्लेट रो के करूं?’ गौरी झाळ में आय बोली।

हरनाथ रो क्रोध भी बढ्यो अर गरम होय जवाब दियो—‘फेंक दे।’

सुतंतर भारत री नारी, सभ्य समाज री जायी अर हरनाथ री लाडली, गौरी पति री आज्ञा किण विध टाळ सकै ही—कांपता हाथां सूं प्लेट आंगणै पर ‘धम’ सूं गेर दी। प्लेट टूक-टूक हो कमरै में बिखरगी। एक साग रो प्यालो उछळ कर हरनाथ रै मूंडै पर लाग्यो।

बस फेर के हो? आखै दिन री घटनावां रो क्रोध पळ भर में भभक्यो। बिजळी रै तार रो हण्टर हाथ में थम्यो, अर कड़कती बीजळ री ज्यूं गौरी रै गात पर बरसण लाग्यो। कमरै में एक तूफान सो आग्यो। सारी चीजां च्यारूंमेर बिखरगी। हरनाथ जी भरकर हंटर चला’र घर सूं निकळ्यो अर गौरी बेहोस हो आंगणै पर पड़गी।

(4)

हरनाथ सीधो चर्च गेट री चौपाटी पर आयो, एक बैंच पर डेरो लगायो। बेंच री गोदी में आंखा तन री लगाम ढीली छोड़ दीं, दोन्यूं पग सामैं खड़ी दीवाल पर घर’र खूनी आंख्यां सूं समन्दर री उठती झाळ नै अवेखण लाग्यो। जद हियै री भभकती लाय ठंडी पड़ी तो बो बीती नै बिचारी। आखै दिन री घटनावां चालतै चितराम री ज्यूं एक-एक करती आंख्यां आगै आती गई—

- नौकरी गई सो तो गई, पण आस कदै सपनै में भी ही कोनी कै दोस्तां री दोस्ती एक झीणी-सी हंसी रै सागै बिदा मांग लेली। बस में और पचास आदम्यां खातर जगां है पण मेरै खातर तिल जतरी नीं। स्यात् नाळी रो मूं भी मेरै खातर ही खुलो हो। इतरी तो सारी भर भुगती, पर गोरी री अपेक्षा थोड़ी ही सरावण जोगी ही? प्लेट टूटी सो टूटी हुवैली कोई दस-बारा आनां री, अर हद सूं हद कोई डेढ़-दो री, बस। एक प्यालो उछळ कर मूंडै पर जो लाग्यो, बस हण्टर हाथ सूं बरसण लाग्यो—जी भरकर—बरस्यो।’

सोचतां सोचतां हरनाथ री क्रूरता फूट पड़ी। दीवाल पर सूं पग धरती पर जा पड़्यो, पळ भर खातर हाथ सूं हाथ जूझण लाग्या, दांत क्रोध रै बस ‘कट कट’ बोलण लाग्या।

इतरी देर में सागर री गोदी सूं एक झाळ उठी अर हाथ भर उछळ कर बूंद-बूंद हो च्यारूंमेर बिखरगी। कई छाटां क्रूरता री साक्षात मूरत हरनाथ रै गात पर भी पड़ी, अर बिचार बदल्यो—

‘—इण तरै के ठा कितरीक बूंदां आंगणै में चिलकती निजर आई? याद है, जद उण रै कंवळै गात पर आंगळ्या जरा जोर सूं पड़ ज्याती तो आंख्यां पर दो मोतीड़ा-सा आंसू चिलकण लागता। बा आखी रात तो फेर पसवाड़ो फेरतां ही कटती। पण आज मुख भी किण भांत दिखाऊं?’

हरनाथ रो हियो आंसूं भर ल्यायो अर आंसुवां री धार सूं हियै रो मैल धोवण लाग्यो।

(5)

सांझ पड़ी अर दिन आथण लाग्यो। सैलानी घूमण नै आया। चौपाटी पर हालर-मलर होवण लागी। नवां-नवां दम्पति हरनाथ री बैंच सूं होय निकळण लाग्या! जदकद उणरी हेत री बातड़ल्यां रा भूल्या बिछड़्या बैणां नै सुणतो तो जरा निजर उठा देख लेतो।

गौरी भी निर्णय कर्‌यो कै हरनाथ अर गौरी, दोन्यू जणां में सूं इण घर रै मांय एक ही रहसी। एक म्यान रै मांय दो तरवारां किण बिध टिके? गौरी भी पाड़ोसी री मोटर पर चढ़’र बिदा मांगी। मोटर हरनाथ री बैंच रै आगै रुकी। दया अर बदलै री मूरत गौरी भी उतरी।

हरनाथ रो ध्यान टूट्यो तो नैणां में बिसवास हुयो कोनी, पण जरा ध्यान सूं निजर लगाई तो जाणतां भी बार लागी कोनी।

हरनाथ आपै सूं बारै हो अवाज लगाई—‘गौरी गौरी!’

गौरी मूंडो फेर कर देख्यो तो उणरो काळजो जगां छोड़दी। क्रूरता री मूरत हरनाथ सामनै हो। गौरी भागी अर हरनाथ उणरै पाछै। डर सूं कांपती गौरी रै सामै, बो किण बिध प्रगट कर सकै हो कै इण पापी हियै में भी प्रेम अर करुणा रा बीज बाकी है। हरनाथ रै आगै, एक समस्या ही।

चाणचुकी एक मोटर आई, गौरी सूं तो बात करती निकळगी, पण हरनाथ, जिको आखड़’र पड़्यो तो ऊपर सूं मोटर उछळी अर डाक्टर हिंडन नीचे उतर्‌यो। गौरी पाछी मुड़ी तो हरनाथ बेहोस पड़्यो हो। मोटर सूं ल्हास जगां जगां किचरीजगी।

गौरी अधगैली री ज्यूं भागती सी आई, पण हरनाथ दूजै लोक में हो।

चितराम सान्त हो। आखी कथा पूरी हुई। पून रै झोलै सूं बो अब भी पांख फड़फड़ावै हो, पण बेकार।

स्रोत
  • पोथी : राजस्थान के कहानीकार ,
  • सिरजक : दामोदरप्रसाद ,
  • संपादक : दीनदयाल ओझा ,
  • प्रकाशक : राजस्थानी साहित्य संस्थान, जोधपुर ,
  • संस्करण : द्वितीय संस्करण
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