थे तो हद सूं बध गया जी

म्हारै माथै लद गया जी।

बूझ नीं पावैली दुनिया

थे कद आया, कद गया जी।

बळदां साम्हीं खुद जा रैया

लागै थांरा दिन लद गया जी।

इत्तो सगपण है वां सूं

कागद आया, कागद गया जी।

दिन-दिन अब तो दिन गिणां हां

जग रा सब कारज सध गया जी।

थांरी बिसात ‘यकीन’ है कांईं

आछा-आछा बरगद गया जी।

स्रोत
  • पोथी : राजस्थली ,
  • सिरजक : पुरूषोत्तम यकीन ,
  • संपादक : रवि पुरोहित ,
  • प्रकाशक : राजस्थानी साहित्य संस्कृति पीठ राष्ट्रभाषा हिन्दी प्रचार समिति, श्रीडूंगरगढ़ (राज.) ,
  • संस्करण : अंक 72
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