डीगी पतळी पींपळी पसवाड़ै प्यारो पिणघटियो

आँख्यां रो तारो पिणघटियो

कामणगारो पिणघटियो

सूरज री सतरंगी किरणां, पूरब री पिणिहार्‌यां रे

आभै सूं ठमक ऊतरै, सुरगां री सिणगार्‌यां रे

पंछीड़ां रा मुजरा लेंती, सुणती घण किलकार्‌यां रे

पिणघट घाट कोडाई नाचै, रूपळ राज कुमार्‌यां रे

धिन-धिन रे पिणघटिया थारो, भाग सरावै सूवटियो

डीगी पतळी...

पोमीजै ‘घुरसली’ कूंडियै, धुरै ‘कमेड़ी’ लूमै रे

‘चिड़ी’ घोड़िए बैठी सोवै, ‘सुगनां’ भूण लटूमै रे

घूमर गालै ‘सोन चिड़कली’, ‘तीतर’ सारण घूमै रे

‘कागलियो’ कुरळावै खेळी, मगन ‘मोरियो’ झूमै रे

धिन-धिन रे धोरां रा मोभी, थारो मारग झीणो अटपटियो

डीगी पतळी...

दोय घड़ी दिन चढ़ियां थारै, घाट झमा-झम माचै रे

भरै बेवड़ा कुळबहुवां कोई, लुळ-लुळ भांडा मांजै रे

घणी हतायां बात्यां करत्यां, कामणियां कद धापै रे

साइण्यां मिल करै मसकर्‌यां, लजवन्त्यां घण लाजै रे

धिन धिन रे पिणघटिया तू तो, मरुधर मोवण गळपटियो

डीगी पतळी...

तैं कितरी-कितरी बिणजारां री, बाळध तिरस बुझाई रे

जुगां जुगां रै जातरियां री, तैं हिय जोत जगाई रे

अशरण-शरण इसौ कुण जिण री, मेहमा सदा सवाई रे

तन्ने देख तिसायो म्हारी, आंखड़ल्यां भर आई रे

धिन-धिन रे गहभरिया थारो, हेत पताळां पिरगटियो

डीगी पतळी..

स्रोत
  • पोथी : मोरपांख ,
  • सिरजक : ओंकार पारीक / ओंकार श्री ,
  • प्रकाशक : राजस्थान साहित्य अकादमी (संगम) ,
  • संस्करण : प्रथम संस्करण
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