जद झुकै सीस, नीचा व्है नैण, धरती रौ कण-कण सरमावे।
वां कायर, कीट नीचा व्है नैण, धरती रौ कण-कण सरमावे॥
अंबर री आंख्यां लाज मरै, धरती लजखाणी पड़ जावे।
जद झुकै सीस, नीचा व्है नैण, धरती रौ कण सरमावे॥
भेरी रौ रण में नाद हुवे, मतवाळा खागां खणकावे।
मां-वसुन्धरा हित जंग छिड़े, वीरां रौ जोस उफण आवे॥
अंतर री ज्लाळा जाग उठे, रग-रग में बीजळ दौड़ पड़े।
झणझणा उठै मन री वीणा अर आंख्यां सूं अंगार झड़े॥
पण, हाय ‘मौत री मंडी’ देख, मतवाळा मन में घबरावे।
जीवण री चिंता आण पड़े, प्राणां रौ मोह नहीं जावे।
सिंघां री झपटां झालणिया, मिनकी रै डोळां डर जावे।
जद झुकै सीस, नीचा व्है नैण, प्राणां रौ मोह नहीं जावे॥
वे राजमहल, रसभोग, भवन, वैभव-विलास में चूर अड़या।
ज्यूं ‘मानवता री छाती’ पर, दानव रा निष्ठुर-पैर पड़या॥
महलां में बैठो मौज करै, वो राज-काज रौ रखवाळो।
जीवण रौ भार लियां ढोवे, गळियां में रोवै दुखियारो॥
रोटी री मांग करै जग में, सीने पर सहन करै गोळी।
ऊंचे-महलां री छाया में, वां भूखां री दुनिया भोळी॥
ले फौज, पुलिस रा बाजीगर, ले साधन, मोटर, ट्राम, रेल।
आं सड़कां री फुटपाथां पर, कर रहयो विधाता अेर खेल॥
वो खेल जिकै में मानवता, कठपुतळी बणकर नाच उठै।
वे हाड-मांस बण्या पींड, लकड़ी रा घोड़ा बण जावै॥
सहकर हंटर री मार ‘मनुज’, मुसकान बिखेरयां खड़यो रवै।
सहकर खुटै पर खड़यौ रवै, पथ पर पत्थर ज्यूं पड़यो रवै॥
बहनां री इज्जत लूंट दनुज, नित अट्टहास करतौ जावे।
जद झुकै सीस, नीचा व्है नैण, धरती रौ कण सरमावे॥
वे ‘घिसी-व्यवस्था’ रा प्रेमी, वे शोषक, सत्ता रा हामी।
वे लांबा-तिलक लगावणिया, है ‘काती रा कुत्ता’ कामी॥
सोनै-चांदी रै टुकड़ां पर, मानव इज्जत रौ मोल करे।
.... तन रौ तांबै सूं तोल करे॥
मन बिक ज्यावै तन बिक ज्यावै जीवण री सोरभ लुट ज्यावे
रह जाय मानवी-जूंण मात्र, पण ‘मन री भूख’ नहीं ज्यावे॥