‘गऊ माता गोमती, टोघड़ियो गणेशजी’

कैवत साची रै भायां, भाखै भारत देशजी

आं रो वंश रुखालो देखो—ओ किसनचन्दर रो देशजी

राधाकिसन रो देशजी

गोपीकिसन रो देशजी

गऊ माता...

जिण धरती में घी’र दूध री, सुणां के नदियां बैं’ती रे

बो’धन आज धण्यां नै बिलखै, धन बिन सूनी धरती रे

दूध दही घी घणी मिळावट, लगी काळजै ठेसजी

गऊ माता...

गायां पड़ी बैसकै भायां, चौपट कारोबार रे

बाळध ढोळै पड़्या बापड़ा, भूखा अर बीमार रे

खेती उजड़ी नसलां बिगड़ी, माच्यौ घणो कळेस जी

गऊ माता...

दूध पूत बेचण री सौगन, गई समन्दर पार रे

गोवणियां में ऊंधी हुयगी, पाणीड़ै री धार रे

रगत बायरा डील सतावै काया रोग हमेश जी!

गऊ माता...

नान्हड़िया टाबर देखो, दूध दही नै तरसे रे

आंतड़ल्यां कळपावै आंरी, आंख्यां आँसू बरसे रे

दूध नहीं तो पूत नहीं रे, फेर बंच्चौ कंई शेष जी!

गऊ माता...

स्रोत
  • पोथी : मोरपांख ,
  • सिरजक : ओंकार पारीक / ओंकार श्री ,
  • प्रकाशक : राजस्थान साहित्य अकादमी (संगम) ,
  • संस्करण : प्रथम संस्करण
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