रहत नपूती तौ इतौ, दुख्ख करती आद।

देस पड़्यौ परवस हुऔ, पूत फिरै आजाद॥

अपने पुत्रों की रणपराड़्मुखता पर अवसाद प्रकट करती हुई वीरमाता कहती है कि यदि मैं पुत्रहीन भी होती तो भी मुझे कभी इतना दुःख नहीं होता जितना पुत्रों की रण-विमुखता पर आज हो रहा है। शोक! देश तो दासता की श्रंखला में जकड़ा हुआ है और पुत्र निश्चिन्त होकर अकर्मण्य बने फिरते हैं।

स्रोत
  • पोथी : महियारिया सतसई (वीर सतसई) ,
  • सिरजक : नाथूसिंह महियारिया ,
  • संपादक : मोहनसिंह ,
  • प्रकाशक : राजस्थानी ग्रन्थागार, जोधपुर ,
  • संस्करण : प्रथम
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