जे म्है होती बादळी, बिरखा करती जोर।
जाय बरसती खेत मं,(जठै) पीव चरावै ढौर॥१॥
अमि बरसाती आभ सूं, भीजत म्हारो पीव।
दूर निजर सूं देखती, सुख सरसातौ जीव॥२॥
पिव जाणै पाणी पड़ै, झरै नैण सूं नीर।
हियो हिबोळा चढ़ गयौ, धरे'ज नाहीं धीर॥३॥
गिगन घराणों छौडनै, अवनी पड़ती आय।
नाळी बणकर बेवती, चरण धौवती जाय॥४॥
संग वायरै बैवती, निजरां नीची डार।
जठै दीखतौ बालमों, पड़ती धारो धार॥५॥
इंदर नै अरजी लिखूं, सुणौं पुरंदर नाथ।
काळी करदै बादळी, बरसूं सायब माथ॥६॥
बरसी बादळियां बणीं, खाली कर्यो तळाव।
सायब समझ्यौ सेन मं, झट पट कियो बणाव॥७॥
चाल्यौ मरवण देसडै़, घोड़ां कसली जीण।
साथी चाल्या साथ मं, बाजै मरदंग बीण॥८॥
पीव पधार्या पावणां, गाया मंगळ गीत।
हरख बधाया हेत सूं, मिलग्या मन रा मीत॥९॥