लूरां फागण लेवती,

कांमण करती कोड।

कांण काळ राखी नहीं,

आई फागण ओढ॥

रम्मत मंडावै रावळां,

काळ गिणै नहीं कोय।

सांग लावै केई सांतरा,

हरख घणै रौ होय॥

नर नाचै संग चंग रै,

लेवै लुगायां लूर।

मिनख कुमांणस काळ नै,

राखै कोसां दूर॥

फागण में फगडा करै,

काळ बडौ विकराळ।

मरजादा छोडै मिनख,

तिन तिन कूदै ताळ॥

असाढ महीणौ आवसी,

संग सांवण सरसाय।

भरतार मिलांला भादवै,

मन तन नै बिलमाय॥

स्रोत
  • पोथी : रेवतदान चारण री टाळवी कवितावां ,
  • सिरजक : रेवतदान चारण कल्पित ,
  • संपादक : सोहनदान चारण ,
  • प्रकाशक : साहित्य अकादेमी ,
  • संस्करण : प्रथम संस्करण
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