वे रण में विरदावता, वे झड़ता खग-हूंत।
वे चारण किण दिस गया, किण दिस गा रजपूत॥
सच्चे चारण और सच्चे क्षत्रियों का अभाव देखकर कवि क्षोभ-व्यञ्जना प्रकट कर रहा है कि वे चारण जो ओजस्वी शब्दों से कायर को भी वीर बना देते थे और वे क्षत्रिय जो चारणों के प्रोत्साहन पर देश के लिए तलवारों से कटकर टुकड़े-टुकड़े हो जाते थे आज किधर चले गये अर्थात् आज न तो वीररस की काव्य-सरिता बहाने वाले चारण ही रहे हैं, न वीरता की प्रेरणा ग्रहण करने वाले क्षत्रिय ही।