वा दिस सखी! सुहावणी, सह दिस हूंत विसेस।

बिण माथै खग वाहणा, नर निपजै जिण देस॥

हे सखि! वह वीर प्रसविनी दिशा अन्य सब दिशाओं से कई गुनी अधिक सुहावनी है जिस देश में ऐसे वीर-रत्न जन्म लेते है जो मस्तक कट जाने पर भी कबंध रूप में तलवार चलाते रहते है।

स्रोत
  • पोथी : महियारिया सतसई (वीर सतसई) ,
  • सिरजक : नाथूसिंह महियारिया ,
  • संपादक : मोहनसिंह ,
  • प्रकाशक : राजस्थानी ग्रन्थागार, जोधपुर ,
  • संस्करण : प्रथम
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