कटै को दिन काटियां, कटै किण ही राह।

कटही बंधण देस रा, कांधा कटियां नाह॥

वीरांगना स्वदेश की स्वतंत्रता-प्राप्ति के हेतु अपने पति से साग्रह निवेदन करती है कि है नाथ! मातृभूमि की परतंत्रता की बेड़ियाँ तो खड़्गो द्वारा ही काटी जा सकती हैं, कि इधर-उधर व्यर्थ दिन बिताने से और किसी अन्य प्रकार के ही थोथे साधनों से।

स्रोत
  • पोथी : महियारिया सतसई (वीर सतसई) ,
  • सिरजक : नाथूसिंह महियारिया ,
  • संपादक : मोहनसिंह ,
  • प्रकाशक : राजस्थानी ग्रन्थागार, जोधपुर ,
  • संस्करण : प्रथम
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