दिसै जंगळां डगळ, जेथ भर बगळा चाढै।

अणहूंतां गळ दियण, गळा हूंतां गळ काढै।

मच्छ गळागळ मांहि, ग्वाळ व्है गळी दिखाळै।

गळी डाळ फळ गजै, गजी डाळ फळ गाळै।

गळै असुर सुर नाग नर, आपण चै कुळ उध्दरै।

अलख रै हाथ अमंगळ मंगळ ‘अलू’, कंई भगळ विद्या करै॥

प्रभु की शक्ति के इंगित पर प्रचंड वायु पल भर में निर्जन वन-प्रदेश में ऐसा जल-प्लावन कर देता है कि ऊँचे-ऊँचे टीलों तक पानी चढ़ जाता है, उसी के संकेत पर आतताइयों के गले में फाँसी का फंदा डाल दिया जाता है और बेकसूर लोगों के गले में डाला गया फंदा निकाल दिया जाता है। स्वेच्छाचार के चलन में जहाँ बड़ी मछली छोटी मछलियों को निगलना अपना जन्म-सिध्द अधिकार मानती है, वहाँ वही अज्ञात शक्ति मार्ग-दर्शक बनकर उन्हें बाहर निकलने का रास्ता बता देती है। यह सामर्थ्य केवल उसी परमात्म शक्ति में है कि वह किसी वृक्ष की एक सूखी हुई डाल पर ताजा फल के गुच्छ लगा दे और हरी-भरी डाल पर लगे हुए फलों को सहसा सुखा दे।

यह निश्चय है कि चाहे कोई भी योनि क्यों हो—देव, मनुष्य असुर और नाग, ईश-कृपा के बिना किसी के आवागमन का चक्र नहीं मिट सकता और वंश का उद्धार ही संभव है। अलूनाथजी कहते हैं कि संसार में मंगल और अमगंल का विधान तो केवल उस निरंजन परमेश्वर के हाथ है। भला, किसी जादूगर की क्या ताकत है कि उसके सामने कोई जादू का कौतुक दिखा सके।

स्रोत
  • पोथी : सिद्ध अलूनाथ कविया ,
  • संपादक : फतहसिंह मानव ,
  • प्रकाशक : साहित्य अकेदमी ,
  • संस्करण : प्रथम
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