राजस्थान के प्राचीन एवं प्रमुख किलों में से एक, अजमेर का तारागढ़ अरावली पर्वतमाला के शिखर पर अवस्थित है। इस दुर्ग के निर्माताओं के बारे में प्रामाणिक जानकारी का अभाव है। ऐसा माना जाता है कि सांभर के चौहान शासकों ने अरब खलीफाओं के आक्रमणों से सुरक्षा के लिए इस दुर्ग का निर्माण करवाया। जिस पहाड़ी पर यह क़िला निर्मित है उसे बीटली पहाड़ी कहा जाता है। तारागढ़ की पहाड़ी के नीचे एक प्राचीन गुफा शीशाखान है जो वातानुकूलित रहती है। लगभग दुर्भेद्य समझे जाने वाला तारागढ़ मजबूत प्राचीर और विशालकाय बुर्जे साथ लिए खड़ा है। हालाँकि कर्नल टॉड ने अजमेर नगर के संस्थापक चौहान नरेश अजयराज को इसका निर्माता माना है। तारागढ़, अजयमेरू जैसे कई नाम इस क़िले के पर्यायवाची हैं। एक और इतिहासकार डॉ. गोपीनाथ शर्मा का मानना है कि राणा सांगा के भाई पृथ्वीराज ने इस दुर्ग के कुछ हिस्से बनवाये और अपनी पत्नी तारा के नाम पर इसका तारागढ़ नाम रखा। एक मत यह भी है कि मुगल समय में विट्ठलदास गौड़ को यहाँ का दुर्गाध्यक्ष बनाया गया था।
तारागढ़ को हर युग में आक्रमणों का सामना करना पड़ा। यह दुर्ग सातवीं शताब्दी से लेकर उन्नीसवीं शताब्दी में ब्रिटिश आधिपत्य तक अनेक रोमांचक घटनाओं का साक्षी रहा है। महमूद गजनवी ने यहाँ 1024 ई. में घेरा डाला लेकिन स्वयं घायल हो जाने के कारण घेरा उठा लिया। तराइन के द्वितीय युद्ध में पृथ्वीराज चौहान तृतीय की पराजय के बाद तारागढ़ पर मुहम्मद गौरी ने अधिकार कर लिया। कुछ समय तक के लिए लिए पृथ्वीराज चौहान के छोटे भाई हरिराज ने इसे पुनः अपने हिस्से में कर लिया लेकिन कुतुबुद्दीन ऐबक ने उससे वापस ले लिया। तदन्तर यह किला राणा कुम्भा, मालदेव, रांव रणमल, माँडू सुलतान आदि के साम्राज्य-संघर्ष का साक्षी रहा फिर शेरशाह सूरी और उसके गवर्नर के अधिकार में रहने के बाद यह दुर्ग अकबर के समय मुगलों के अधिकार में आ गया। 1659 ई. में तारागढ़ मारवाड़ के अजीत सिंह के अधिकार में रहा। 1818 ई. में यह क़िला अंग्रेजों के नियन्त्रण में आ गया। गवर्नर जनरल विलियम बैंटिक ने 1832 ई. में संभावित उपद्रव के डर से प्राचीर और उसका अन्य बहुत सारा भाग तुड़वा दिया। इस तरह तमाम युद्ध-संघर्षों को झेलते हुए यह क़िला फिलहाल जर्जर स्वरुप में है।
यह किला लगभग 80 एकड़ की परिधि में फैला हुआ है। दुर्ग के अन्दर खाद्य सामग्री सुरक्षित रखने के लिए विशाल भंडार बने हुए हैं। एक विद्वान मत के मुताबिक यह क़िला भारत का प्रथम गिरि दुर्ग है। किले के प्रमुख प्रवेश द्वारों में भवानीपोल, फूटा दरवाजा, अरकोट दरवाजा, बड़ा दरवाजा आदि ख्यात हैं। किले की प्राचीर में 14 विशाल बुर्जे और पाँच बड़े जलाशय हैं। किले के भीतर मुस्लिम सन्त मीरां साहेब की दरगाह भी है। तारागढ़ की ऐतिहासिक और सांस्कृतिक धरोहर के संदर्भ में यह दोहा बहुत प्रसिद्ध है।
गौड़ पंवार सिसोदिया, चहुवाणां चितचोर।
तारागढ़ अजमेर रो, गरवीजै गढ़ जोर॥