जालौर का किला पश्चिमी राजस्थान के सबसे प्राचीन और सुदृढ़ दुर्गों में गिना जाता है। जिस विशाल पर्वत शिखर पर यह प्राचीन किला बना है उसे सोनगिरी अथवा सोनलगढ़ कहा गया है। इसी सोनगिरी के कारण चौहानों की एक शाखा ‘सोनगरा’ उपनाम से लोक में प्रसिद्ध हुई। इतिहास अनुसार जालौर और उसका निकटवर्ती इलाका गुर्जर देश का एक भाग था तथा यहाँ पर प्रतिहार शासकों का वर्चस्व था। प्रतिहारों के शासन काल (750-1018 ई.) में जालौर एक समृद्धिशाली नगर था। प्राचीन साहित्य-शिलालेखों में जालौर का नाम जाबालिपुर, जालहुर आदि नामों से मिलता। वत्सराज के शासन काल में 778 ई. में जैन आचार्य उद्योतन सूरी ने जालौर में अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ कुवलयमाला की रचना की। कुछ और इतिहासकारों ने परमारों को जालौर दुर्ग का संस्थापक माना है। यहाँ कुछ ऐसे शीलालेख़ मिलते हैं, जिसमें पूर्ववर्ती परमार राजाओं का नामोल्लेख है।

जालौर दुर्ग पर विभिन्न कालों में प्रतिहार, परमार, चालुक्य (सोलंकी) चौहान, राठौड़ इत्यादि राजपूत राजवंशों ने शासन किया वहीं इस दुर्ग पर दिल्ली के मुस्लिम सुलतानों, मुगल बादशाहों तथा अन्य मुस्लिम वंशों का भी अधिकार रहा। लेकिन इस किले में सोनगरा चौहानों के किस्से, आख्यान बड़े रोचक हैं। कीर्तिपाल चौहानों की जालौर शाखा का संस्थापक था। सूँधा पर्वत अभिलेख में कीर्तिपाल के लिए ‘राजेश्वर’ शब्द का प्रयोग हुआ है। जालौर के किले को दुर्भेद्य रूप प्रदान करने वाला समरसिंह एक विजेता और कुशल कूटनीतिज्ञ भी था। उसने गुजरात के चालुक्य वंश के नरेश भीमदेव- द्वितीय के साथ अपनी राजकुमारी लीलादेवी का विवाह कर उसे अपना सम्बन्धी मित्र बना लिया। एक उक्त शिलालेख में उदयसिंह को तुर्कों का मान मर्दन करने वाला कहा गया है। दिल्ली में अपना अधिकार होने के बाद इल्तुतमिश ने जालौर पर जोरदार आक्रमण किया तथा एक विशाल सेना के साथ किले को घेर लिया। उदयसिंह ने इस आक्रमण का डटकर मुकाबला किया और इल्तुतमिश को वापस लौट गया। विक्रम संवत् 1278 के लगभग इल्तुतमिश ने राजपूताना पर फिर अभियान किया। लेकिन उदयसिंह और गुजरात की संयुक्त सेना देखकर युद्ध किये बगैर वापस लौट गया। उदयसिंह के बारे में यहाँ प्रचलित है कि वह कला और साहित्य का बड़ा मर्मज्ञ था।

यहाँ अलाउद्दीन खिलजी का भी आक्रमण रहा, अलाउद्दीन ने पहले सिवाणा के किले पर जोरदार आक्रमण किया तथा कान्हड़दे का भतीजा सातलदेव दुर्ग की रक्षा करता हुआ वीरगति को प्राप्त हुआ। इसके बाद अलाउद्दीन ने जालौर दुर्ग को अपना लक्ष्य बनाया। जालौर पर आक्रमण करने का बड़ा कारण यह था कि सन् 1298 ई. में अलाउद्दीन खिलजी ने गुजरात विजय करने और प्रसिद्ध सोमनाथ मन्दिर को ध्वस्त करने के लिए में जो विशाल सेना वहाँ भेजी थी उसे कान्हड़देव ने अपने जालौर राज्य से होकर गुजरने की अनुमति नहीं दी थी। बाद में उसने योग्य सेनापति कमालुद्दीन को जालौर अभियान की बागडोर सौंपी। जालौर का यह घेरा लम्बे अरसे तक चला। कान्हड़दे प्रबन्ध में इसका उल्लेख है। एक विश्वासघात के चलते कान्हड़देव ने अपने राजकुमार वीरमदेव और विश्वस्त योद्धाओं के साथ अलाउद्दीन की सेना के साथ युद्ध करते हुए वीरगति प्राप्त की और किले के भीतर सैकड़ों ललनाओं ने जौहर किया। इसके बाद जालौर पर मुसलमानों का आधिपत्य रहा। जोधपुर के राव गांगा के शासन काल में राठौड़ों ने जालौर पर चढ़ाई की। जालौर के अधिपति मलिक अलीशेर खाँ ने चार दिन तक राठौड़ सेना का मुकाबला किया तथा यह आक्रमण विफल हो गया। राव मालदेव ने भी जालौर पर आक्रमण किया। इस तरह जालौर का क़िला तमाम महत्वपूर्ण ऐतिहासिक घटनाओं का साक्षी रहा।

सामरिक स्थिति के कारण प्राचीनकाल से ही महतवपूर्ण रहे जालौर किले का स्वरूप अपनी सुदृढ़ता के कारण बहुत कमाल रहा। इस दुर्ग के स्थापत्य की प्रमुख विशेषता यह है कि इसकी प्राचीर बड़ी विचित्र है, जिससे शत्रु कई बार भ्रम में पड़ जाता था। दुर्ग के भीतर जाने के लिए मुख्य मार्ग शहर के भीतर से है जो टेढ़ा-मेढ़ा घुमावदार है तथा लगभग 5 कि.मी. लम्बा है। जालौर दुर्ग के ऐतिहासिक स्थलों में दो मंजिला रानी महल, प्राचीन जैन मन्दिर, चामुण्डा माता और जोगमाया के मन्दिर, दहियों की पोल, सन्त मल्लिकशाह की दरगाह आदि प्रमुख हैं। किले में स्थित परमार कालीन कीर्ति स्तम्भ कला का उत्कृष्ट नमूना है। किले का तोपखाना बहुत सुन्दर और आकर्षक है जिसके विषय में कहा जाता है कि यह परमार राजा भोज द्वारा निर्मित संस्कृत पाठशाला थी। यहाँ के एक प्रवेश द्वार एक सुदृढ़ दीवार से इस तरह घिरा है कि दुश्मन पहुंच ही नहीं बना सके। दुर्ग का दूसरा प्रवेश द्वार ध्रुवपोल, तीसरा चाँदपोल और चतुर्थ सिरेपोल हैं। पहाड़ी के शिखर भाग पर निर्मित वीरमदेव की चौकी और किले के भीतर जलस्त्रोत के रूप में जाबालिकुण्ड, सोहनबाग आदि इस किले के प्रमुख निर्माण है।

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