अरावली पर्वतमाला की गोद में बसा तारागढ़ दुर्ग लगभग सात सौ वर्षों के इतिहास का साक्षी है। इतिहास के अनुसार हाड़ा शासक देवासिंह (राव देवा) ने बून्दू घाटी के अधिपति जैता मीणा को पराजित कर बूँदी में अपनी राजधानी स्थापित की। वंशभास्कर में भी देवसिंह द्वारा जैता मीणा से बूंदी लेने का प्रसंग आया है। तदोपरांत राव बरसिंह ने मेवाड़, मालवा और गुजरात की ओर से संभावित आक्रमण से सुरक्षा हेतु बूँदी के पर्वतशिखर पर एक विशाल दुर्ग का निर्माण करवाया जो तारागढ़ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। अपनी भोगौलिक स्थिति और सामरिक महत्त्व के कारण तारागढ़ शुरुआत से ही साम्राज्यवादियों का लक्ष्य बना रहा। कभी इसे मेवाड़ के सिसोदिया शासकों ने अपने अधीन किया तो कभी यह दुर्ग मालवा (मांडू) के मुस्लिम सुलतानों के अधिकार में रहा। लेकिन हर दफ़े बूँदी लेने से पूर्व हर किसी को हाड़ाओं से जबर्दस्त संघर्ष करना पड़ा। यहाँ तक कि मेवाड़ के महाराणा लाखा भी जब तमाम प्रयासों के बावजूद भी बूँदी पर अधिकार न कर सके तो उन्होंने मिट्टी का प्रतीकात्मक दुर्ग बनवा उसे नष्ट कर अपने मन को संतुष्ट किया।
वीर विनोद के अनुसार मालवा के सुलतान होशंगशाह ने एक विशाल सेना लेकर बूँदी पर जोरदार आक्रमण किया जिसका हाड़ाओं ने डटकर मुकाबला किया। बूँदी के राव बैरीसाल ने लड़ते हुए वीरगति प्राप्त की तथा दुर्ग पर होशंगशाह का अधिकार हो गया। हाड़ौती में महमूद खलजी ने एक के बाद एक करके तीन बार (वि.सं. 1503, 1513 और 1515) अभियान किये और बून्दी पर अधिकार कर लिया। लेकिन उसकी शक्ति कमजोर पड़ते ही महाराणा कुम्भा ने बूँदी को अपने अधीन कर लिया। इतिहास के अनुसार बूँदी के हाड़ा राव भाँडा और उसके भाई साँडा ने लूटमार करते हुए अमरगढ़ के किले पर अधिकार कर लिया था। कुम्भा ने अपनी सेना के साथ बूँदी दुर्ग को घेर लिया, जिससे हाड़ा सन्धि करने को विवश हो गये। कुम्भलगढ़ प्रशस्ति (वि.सं. 1517) में भी राणा कुम्भा की विजय का उल्लेख हुआ है। हाड़ा राजपूतों की वीरता का प्रतीक बूँदी का तारागढ़ क़िला सौन्दर्य से दीप्त है। यह दुर्ग गिरी-दुर्ग की श्रेणी में आता है।
क़िले की प्राचीर, अद्भूत प्रवेशद्वार, तथा लबालब तालाब ऐसा दृश्य प्रस्तुत करते हैं कि तारागढ़ का सौन्दर्य देखते ही बनता है। बूँदी और उसका निकटवर्ती प्रदेश लम्बे समय तक हाड़ा राजवंश द्वारा शासित होने के कारण यह इलाक़ा हाड़ौती के नाम से विख्यात है। भित्तिचित्रों के रूप में कला का एक अनमोल खजाना इस दुर्ग में विद्यमान है। दुर्ग का स्थापत्य भी अनूठा है। निर्माताओं के नाम से प्रसिद्ध इन महलों में छत्र-महल, अनिरुद्ध महल, रतन- महल, बादल-महल और फूल-महल स्थापत्य कला आदि प्रसिद्ध हैं। क़िले के हाथीपोल के दोनों ओर हाथियों की दो सजीव पाषाण प्रतिमायें लगी हैं, जिन्हें महाराव रतनसिंह ने वहाँ स्थापित करवाया था। महाराव बुद्धसिंह ने बूँदी नगर के चारों और प्राचीर का निर्माण करवाया। महाराव उम्मेदसिंह के शासनकाल में निर्मित रंगविलास नामक चित्रशाला बूँदी स्कूल ऑफ़ पेंटिंग का श्रेष्ठ उदाहरण है। बूँदी शैली के चित्रों में शिकार, युद्ध, राग-रागिनियों, बारहमासा, प्रकृति चित्रण, नारी सौन्दर्य तथा अन्यान्य धार्मिक आदि चित्रों का बाहुल्य है।