र्भेद्य दुर्गों की कोटि में शामिल कुम्भलगढ़ उदयपुर से लगभग 60 मील दूर अरावली पर्वतमाला के शिखर पर स्थित है। इस दुर्ग का निर्माण महाराणा कुम्भा द्वारा करवाया गया था। वीर विनोद के अनुसार महाराणा कुम्भा ने 1448 ई. में कुम्भलगढ़ दुर्ग की नींव रखी और 1458 ई. में इसका निर्माण कार्य पूरा हुआ। कुम्भलगढ़ का युद्ध और संघर्ष के काल में विशेष सामरिक महत्त्व था। सघन और बीहड़ वन से घिरा कुम्भलगढ़ दुर्ग कठिन समय में सदैव मेवाड़ राजपरिवार का आश्रय स्थल रहा है। ऐसा उल्लेख है कि वहाँ मौर्य शासक सम्प्रति द्वारा निर्मित एक दुर्ग था;जो जर्जर अवस्था में है। महाराणा कुम्भा ने इस प्राचीन दुर्ग के ध्वंसावशेषों पर नये दुर्ग की आधारशिला रखी। इतिहासकार गौरीशंकर हीराचंद ओझा के अनुसार महाराणा कुम्भा ने यहाँ सिक्के भी ढलवाये जिन पर कुम्भलगढ़ दुर्ग का नाम अंकित किया गया था। राणा सांगा की मृत्यु के ठीक बाद मेवाड़ राजपरिवार की आन्तरिक कलह शुरू हुई और अंत में पन्ना धाय ने अपने पुत्र की बलि देकर उदयसिंह को बनवीर से बचाया तथा इसी में उसका लालन-पालन किया। उदयसिंह का राज्याभिषेक भी यहीं हुआ।

इसी कुम्भलगढ़ में महाराणा प्रताप का जन्म हुआ था। 1576 ई. में जब कुंवर मानसिंह ने विशाल मुगल सेना के साथ प्रताप पर चढ़ाई की तब महाराणा प्रताप कुम्भलगढ़ में ही लड़ाई की तैयारी कर हल्दीघाटी की ओर बढ़े। शाहबाज खाँ ने 1578 ई. में कुम्भलगढ़ पर मुगलों का आधिपत्य स्थापित किया। लेकिन महाराणा प्रताप ने कुम्भलगढ़ दुर्ग वापस ले लिया। कुम्भलगढ़ अपने शुरुआत के समय से ही अनेक आक्रमणकारियों का निशाना रहा लेकिन अकबर का सेनानायक शाहबाजखाँ के अलावा यह दुर्ग सबसे अविजित रहा। महाराणा कुम्भा के शासनकाल में भी कुम्भलगढ़ में अनेक संघर्ष हुए। महमूद खलजी, सुल्तान कुतुबुद्दीन, शाहबाज खाँ आदि इस किले को लेकर संघर्ष करते रहे।मेवाड़ और मारवाड़ की सीमा पर अवस्थित कुम्भलगढ़ अपने सामरिक महत्त्व और अभेद्य स्वरूप के कारण गिरि दुर्ग का उत्कृष्ट उदाहरण है।

वीरता और बलिदान की रोमांचक गाथाओं के कारण चित्तौड़ का स्थान इतिहास में सर्वोपरि है। इसी के साथ कुम्भलगढ़ अपने अनूठे स्थापत्य के कारण भी बहुत विख्यात है। विशाल प्राचीर और उसी रेंज की विशाल बुर्जें कुम्भलगढ़ को एक सुन्दर स्वरूप प्रदान करती हैं। विपत्ति के समय शरणस्थल के रूप में एकदम सटीक स्थान का महत्त्व रखने वाले कुम्भलगढ़ की स्थापत्य कला कटारगढ़ के रूप में प्रकट हुई है। किले के उत्तर की तरफ पैदल रास्ता टूंट्या का होड़ा, पूर्व की तरफ हाथिया गुढ़ा की नाल में उतरने का रास्ता दाणीवटा कहलाता है। यहाँ से कुछ मील दूर चार भुजा से मारवाड़ की ओर जाने के लिए देसूरी की नाल एक अपेक्षाकृत चौड़ा मार्ग है। किले के मुख्य प्रवेश द्वारों में भैरवपोल, नींबूपोल, चौगानपोल आदि प्रमुख हैं। यहाँ एक हनुमान प्रतिमा स्थापित है, जिसे महाराणा कुम्भा नागौर-विजय के समय लेकर आये थे। यहाँ नीलकंठ महादेव का मन्दिर तथा यज्ञ की एक प्राचीन वेदी बनी है। यहाँ के लघु दुर्ग में देवी का प्राचीन मन्दिर, बादल महल, झाली रानी का मालिया आदि प्रमुख हैं। इस तरह कुम्भलगढ़ दुर्ग अतीत की एक बहुमूल्य ऐतिहासिक धरोहर संजोये हुए है।

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