राठौड़ों की वीरता और पराक्रम का साक्षी जोधपुर का मेहरानगढ़ क़िला राजस्थान के क़िलों में प्रमुख और उल्लेखनीय है। क़िले का निर्माण जोधपुर के संस्थापक राव जोधा ने करवाया था। क़िले के पास एक पहाड़ी है, जो प्रसिद्ध योगी चिड़ियानाथ के नाम पर है, इसलिए यह ‘चिड़िया टूक’ कहलाती थी। किले की आकृति कुछ मयूराकृति जैसी है, इस वास्ते इस क़िले को मयूरध्वजगढ़ भी कहते हैं। 12 मई, 1459 ई. को इस किले की नींव रखी गयी और इतिहास में ऐसा उल्लेख है कि यदि किले की नींव में किसी जीवित व्यक्ति की बलि दी जाती है तो वह किला हाथ से नहीं निकलता। इसी विश्वास के अनुसार, जोधपुर के क़िले की नींव में राजिया नामक एक दलित व्यक्ति की बलि दी गई। जोधपुर से पहले मारवाड़ की राजधानी मंडोर थी। जोधपुर का यह क़िला लगभग 400 फीट ऊँचा है तथा क़िले के चारों मजबूत परकोटा है। किले के नगर की ओर से प्रवेश द्वार फतेहपोल का निर्माण महाराजा अजीतसिंह द्वारा करवाया गया था। क़िले की प्राचीर में विशाल बुर्जें बनी हुई हैं। विशाल बुर्जों तथा तमाम अन्य कारणों के चलते जोधपुर के किले को दुर्भेद्य दुर्ग भी कहा जाता है। दुर्ग के दो बाह्य प्रवेश द्वार हैं— उत्तर पूर्व में जयपोल तथा दक्षिण पश्चिम में शहर के अन्दर से फतेहपोल। जोधपुर दुर्ग का एक और प्रमुख प्रवेश द्वार लोहापोल है। ऐसा माना जाता है कि प्रारम्भ में इस किले का विस्तार ‘जोधाजी का फलसा’ तक ही था।
मेहरानगढ़ किले ने तमाम संघर्ष झेले। एक ओर राव मालदेव तो दूसरी ओर शेरशाह। जोधपुर के इस किले पर अनेक बार आक्रमण हुए। लेकिन यहाँ कुछ चरित्र ऐसे भी हुए जिन्होंने यहाँ का मान बढ़ाया—वीर शिरोमणि दुर्गादास और कीरतसिंह सोढ़ा जैसी शख्सियतें उनमें शामिल हैं। किले के अन्य प्रवेश द्वारों में ध्रुवपोल, सूरजपोल, इमरतपोल तथा भैरोंपोल प्रमुख और उल्लेखनीय हैं। 1544 ई. में अफगान शासक शेरशाह सूरी ने जोधपुर के किले पर अधिकार कर लिया और उसमें एक मस्जिद का निर्माण करवाया। लेकिन शेरशाह की मृत्यु के बाद मालदेव ने जोधपुर पर पुनः अधिकार कर लिया। इस तरह तमाम प्रंसग इस क़िले में हुए। उदयपुर की राजकुमारी कृष्णा कुमारी के विवाह सम्बन्ध को लेकर उत्पन्न विवाद भी उनमें से एक है । दुर्ग में जल आपूर्ति के प्रमुख स्त्रोत के रूप में राणीसर और पदमसर विशेष उल्लेखनीय हैं। राणीसर जलाशय का निर्माण रानी जसमा हाड़ी द्वारा व पदमसर का निर्माण रानी पद्मावती द्वारा करवाया गया था। अनूठे लाल पत्थरों से निर्मित और अलंकृत जालियों व झरोखों से सुशोभित इस किले के महल राजपूत स्थापत्य कला के उत्कृष्ट उदाहरण हैं।
1781 में निर्मित फूलमहल पत्थर पर बारीक खुदाई और कोराई के लिए प्रसिद्ध है। किले के भीतर दुर्ग के भीतर राठौड़ों की कुलदेवी नागणेची जी का मन्दिर भी विद्यमान है। चामुण्डा माता तथा आनन्दघनजी के मन्दिर भी प्रमुख और उल्लेखनीय हैं। चामुण्डा माता मन्दिर का निर्माण राव जोधा ने इस दुर्ग की स्थापना के साथ ही करवाया था। किले के अन्य प्रमुख भवनों में ख्वाबगाह का महल, चोखेलाव महल, बिचला महल, रनिवास, सिलहखाना, तोपखाना तथा महाराजा मानसिंह पुस्तक प्रकाश नामक पुस्तकालय उल्लेखनीय हैं। इस इस पुस्तकालय में अनेक दुर्लभ हस्तलिखित ग्रन्थ संजोये हुए हैं। कुछ प्रसिद्ध जगहें जिनका ताल्लुक क़िले की परिधि से है, सोजती दरवाजा, नागौरी दरवाजा, मेड़तिया दरवाजा, जालौरी दरवाजा तथा चाँदपोल उनमें शामिल हैं।
यहाँ के ख्यात मेहरानगढ़ संग्रहालय में अतीत की बहुमूल्य ऐतिहासिक धरोहर को संगृहीत है।