राम रिझाई कियो अपने वसि,

माया रु मोह सौं प्रीति निवारी।

मान गुमान नहीं मन मांहि जु,

दीन गरीब गही निज सारी।

सेवा सनमुख ठाढी करै नित,

राति रु द्योस भजै इकतारी।

हो छीतर भाइ निरंजन के मन,

दादूदयाल सुलखन नारी॥

स्रोत
  • पोथी : पंचामृत ,
  • सिरजक : छीतरदास ,
  • संपादक : मंगलदास स्वामी ,
  • प्रकाशक : निखिल भारतीय निरंजनी महासभा,दादू महाविद्यालय मोती डूंगरी रोड़, जयपुर ,
  • संस्करण : प्रथम