हरि बियोग बिघन मूल अंतरा अनंत सूल,

पति परदै पाप मूल मन बच क्रम मानी।

बिरचि बींद बिपति हाल गुपत कंत कीन्हो काल,

सनमुख नाहीं मु साल सुंदर जिय जानी॥

अबोलनौ अनी सु सार पींठि बहत धार,

मन मरोर मीच मार या समि नहिं आनी।

दीरघ दुख दिल ठौर तुपक तीर तरक त्योर,

बैन बाग कहत और रज्जब धन भानी॥

स्रोत
  • पोथी : रज्जब बानी ,
  • सिरजक : रज्जब जी ,
  • प्रकाशक : उपमा प्रकाशन, कानपुर ,
  • संस्करण : प्रथम
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