अंजन मंजन कैं दृग-रंजन, खंजन चंचलताई चुराई।
मांग बनी सजनी सिरि ज्यौं गिरि, बिंध पै गंग की धार धसाई॥
टीका जराय कौं साथ लसै मिलि, भाल पैं बंदन की चतुराई।
बैंनी बनाय गुही बलि आजु मैं, मांनौं भुजंगनि पांख लगाई॥