धव म्हारा रणधीर, हरण चीर हाथां हुवा।

नाकां छलियौ नीर, द्रोण सभासद देख रे॥

मेरे पति यद्यपि रणधीर है किन्तु इन्होनें इस ध्यूत के कारण अपने हाथों चीर हरण करवाया। पर सबसे बड़े दुःख और आश्चर्य की बात तो यह है कि द्रोणाचार्य जिस सभा के सदस्य हो, वहां भी इस तरह का कुकृत्य हो, लज्जा की पराकाष्ठा हो गई। अब बचने की क्या आशा रही।

स्रोत
  • पोथी : द्रौपदी-विनय (द्रौपदी-विनय) ,
  • सिरजक : रामनाथ कविया ,
  • संपादक : कन्हैयालाल सहल ,
  • प्रकाशक : राजस्थानी ग्रन्थागार, जोधपुर
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