पति गंध्रप हे पाँच, धरतां पग धूजै धरा।

आवै लाज आँच, धर नख सूं कुचरै धवळ॥

गन्धर्व तुल्य मेरे पाँच पति है जिनके पैर रखने से पृथ्वी भी कांपने लगती है (किन्तु बड़े दुःख और आश्चर्य की बात है कि) ये वीर अपने नखों (नाखूनों) से पृथ्वी को कुरेद रहे है, इन्हें लज्जा आती है, क्रोध नही आता। यह लज्जा का प्रसंग नही, इस अवसर पर तो इनके दिल में आग लग जानी चाहिए थी।

स्रोत
  • पोथी : द्रौपदी-विनय (द्रौपदी-विनय) ,
  • सिरजक : रामनाथ कविया ,
  • संपादक : कन्हैयालाल सहल ,
  • प्रकाशक : राजस्थानी ग्रन्थागार, जोधपुर
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