तोकूँ विड़द किसो दे गाऊँ,
जुग ‘चारौं’ वेदां वांचीजै, पैलो पार न पाऊं॥
अगम अपार पार नहिं कोई, पार न किनहूँ पाया॥
तूँ है अेक मांड़ सब तेरी, ‘सुनौ’ निरंजन राया॥
‘सूरज’ तपै सोई तेज तुम्हारौ, घुरैं इन्द्र के वाजा॥
यहु परताप तुम्हारौ स्वांमी, तुम्ह जोगी तुम्ह राजा॥
सात समद इल मूलि न लोपै, ‘त्यांह’ किनि पाज वंधाई॥
जे लोपै मरजाद तुम्हारी, तौ नीर धूलि ‘होइ’ जाई॥
तुम्ह तौ आप सकल घटि भीतरी, तुम्ह ही रहौ उदासा॥
जन हरीदास कूँ ‘चरणां’ राखौ, मेटो जम का त्रासा॥