सजन सनेह रा वे, प्रांण हरि गुण गाइ।

भँवर ज्यौं मन फिरै दह दिसि, काल दह दिसि है सही।

जहाँ लागै तहै काँटा, निज नांव बिणि निरभै नहीं॥

अजहु जिवड़ा कहा सोवै, जुगति जांणि जागही।

आक जड़ क्या दूध सींचै, अंति आंब लागही॥

जांणि ऐसे भजो गोबिंद, परसि हरि रस पीजिये।

जन हरिदास हरि गुण गाइ निसदिन प्रांण हरि कूँ दीजिये॥

स्रोत
  • पोथी : महाराज हरिदासजी की वाणी ,
  • सिरजक : हरिदास निरंजनी ,
  • संपादक : मंगलदास स्वामी ,
  • प्रकाशक : निखिल भारतीय निरंजनी महासभा ,
  • संस्करण : प्रथम
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