संतो..! कुवधि काल तैं डरिये,

भवसागर ‘तिरिवे’ के तांई, देखि देखि पग धरिये॥

लीयां खड़ग द्वारि जम ठाढ़ा, घात पड़ै ‘तव’ मारै॥

हरि का जन कोइ संक मानै, हरि हथियार संभारै॥

सुणि सूरज सुत सबद हमारा, ऐसी कदे होई॥

गोविन्द का जन जम कै द्वारै, जात देख्या कोई॥

मैं मेरा डर सँगि करि लीया, चालि ‘उहां’ जहां भाई॥

साचा लै हरिचरणां राख्या, सजा झूठ कूँ द्‌याई॥

‘निसवासुर’ निरभै गुण गावै, कहि कहि रांम पुकारै॥

जन हरिदास परगट परमेस्वर, ताका काज सँवारै॥

स्रोत
  • पोथी : महाराज हरिदासजी की वाणी ,
  • सिरजक : हरिदास निरंजनी ,
  • संपादक : मंगलदास स्वामी ,
  • प्रकाशक : निखिल भारतीय निरंजनी महासभा ,
  • संस्करण : प्रथम
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