अब मोहि दरस दिखाइ माधवे,

यहु ‘औसर’ लाभै नहीं, दिन दिन घटतो जाइ माधवे॥

प्रीति घटै तौ जिनि मिलो, तुम परमसनेही राइ माधवे॥

मैं जन वांध्या प्रेम सूँ॥

अेक अंदेसो म्हारे मन वस्यो, सो हम विसरैं नांहि माधवे॥

निकटि वसौ न्यारा रहौ, अेकै ‘मंदिर’ मांहि माधवे॥

कै ‘मिलि’ हौ कै तन ‘तजूँ’, अव मोहि जीवण नांहि माधवे॥

प्रांण उधारण तुम्ह मिलौ॥

अवला मनि ब्याकुल भई, तुम्ह क्यूँ रहे रिसाइ माधवे॥

तुम्ह मिलि हो तौ ‘मिलि’ ‘रहूँ’ नहितर मिल्यो जाइ माधवे॥

अंतरजामी आंतरौ, जनम ‘सिरांनो’ जाइ माधवे

परमसनेही ‘तुम्ह’ मिलो॥

पांच सखी सनुमखि भई, सुखमनि सहज समाइ माधवे॥

मन पवना मेला भया, तुम्ह कवर मिलोगे आइ माधवे॥

आत्म अंतरि आइये, जन हरिदास वलि जाइ माधवे॥

दरसण ‘द्‌योहु’ दयालजी॥

स्रोत
  • पोथी : महाराज हरिदासजी की वाणी ,
  • सिरजक : हरिदास निरंजनी ,
  • संपादक : मंगलदास स्वामी ,
  • प्रकाशक : निखिल भारतीय निरंजनी महासभा ,
  • संस्करण : प्रथम
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