सुनत धुनि बैंन मधुराग गौरी रुचिर,
चढ़िय निज भवन तिय रवन हित अगमगी।
जानि घनस्याम् आगमन गोकुल-वधू,
अटनि दुहु दिसनि मनौं दामिनी जगमगी।
सांझ सुख समैं आनंद गहमह ठई,
उड़ि रैन धैन बहु गलिनि बिच रगमगी।
संग गोपाल नट बेस रहि देखि सब,
पलक नहिं लगत, मुख अलक रज सगमगी।
कइक हसि फूल डारत, कइक कांकरी,
कइक मग छाड़ि रहि सांकरी लगमगी।
‘नागरिदास’ हरि माधुरी पान करि,
रहि न कछु ठौर, मति मदन बस डगमगी॥