कलि मैं ते क्यों भक्त कहावैं।

वृद्ध होय जे विमुख संग, फिरि देस-देस उठि धावैं।

होत निरादर दुख नहिं मानत, नींव देत अति औंढ़ी।

चेतत नहीं, बजत सिर ऊपर यह घरियाल काल की डौंड़ी।

बिन जमुना परसैं क्यौं उतरत स्वेत कंचनि बिच धूर।

‘नागर’ स्याम बैठि नहिं सुमिरत ब्रज की जीवन-मूर॥

स्रोत
  • पोथी : नागरीदास ग्रंथावली ,
  • सिरजक : नागरीदास ,
  • संपादक : डॉ. किशोरीलाल गुप्त ,
  • प्रकाशक : नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी ,
  • संस्करण : प्रथम
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