तरुन भयो तरुनी संग राच्यो,

धन के कारन धन उपजावत, विविधि भांति नट-कपि ज्यों नाच्यो।

मोह मगन, विषया रस लंपट, निसि दिन जात जानैं।

तनकैं जोर मरोर मत्त मन, देह अमर ज्यौं मानैं।

स्वारथ हेत तज्यौ परमारथ, निज गृह काज प्रवीन।

अपनौ कियो वृथा, मानत सब ‘नागर’ हरि-आधीन॥

स्रोत
  • पोथी : नागरीदास ग्रंथावली ,
  • सिरजक : नागरीदास ,
  • संपादक : डॉ. किशोरीलाल गुप्त ,
  • प्रकाशक : नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी ,
  • संस्करण : प्रथम
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