सब मुख स्याम सरनैं गयैं।
और ठौर न कहूं आनंद, इंद्रहू कै भयै।
दुख मूल एक प्रवर्त्त मारग, कहि न मानत कोय।
सुख पग्यो जिहि निवर्ति को, मन जानिहै दुख सोय।
सतसंग अंबुज, ब्रज सरोवर, कीरतन-सुख बास।
कीजिए हरि बेगि तिनको भंवर 'नागरिदास'॥