सब दुख बड़े कहायैं होय।

इंद्र सब मैं बड़ो कहियतु, रहत निति दुख भोय।

उग्र तप रिषि करत, सुनि कैं लुटत सेज अंगार।

असुर डर अमरावती तजि, भजत बारबार।

ब्रह्म-हत्या तैं पलानै, दुरे कंवल मृनाल।

अंग भंग मंडित भयो, गिरि गए वृषण विहाल।

बुझ्यो दीपक बढो जैसैं, बड़ो कहियतु भूल।

मानि लघु हरि सरन ‘नागर’ रहैं, सो मुख भूल॥

स्रोत
  • पोथी : नागरीदास ग्रंथावली ,
  • सिरजक : नागरीदास ,
  • संपादक : डॉ. किशोरीलाल गुप्त ,
  • प्रकाशक : नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी ,
  • संस्करण : प्रथम
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