पकड़ि पकड़ि मन को बैठाइ, इहि विधि हरि कै सुमिरण लाइ॥
मन दौड़े देहीं बैसांणी, आसण इसा न होइ रे प्राणी।
मन फोरा देही पांगुली, भो सागर तिरवा की रली॥
जब लग मन वैसे नहिं ठाइ, तौ लग तिल भरि तिरयां न जाइ।
मन जाते का करो गरासा, 'बखना' सतगुर कह्या संदेसा॥