कहां वे सुत नाती हय हाथी।

चले निसान बजाय अकेले, तहां कोउ संग साथी।

रहे दास दासी मुख जोवत, कर मींड़ैं सब लोग।

काल गह्यो तब सबहिन छाड़्यो, धरे रहे सब भोग।

जहां तहां निसि दिन विक्रम को भट्ट थट्ट बिरदत्त।

सो सब बिसरि, लगैं एकै रट, राम नाम कहैं सत्त।

बैठ देत हुते माखीहू, चहुं दिसि चंवर सचाल।

लयै हाथ मै लट्ठा ताको कूटत मित्र कपाल।

सौधै भीनौ गात जारि कै, करि आए बन ढेरी।

घर आयैं ते भूलि गए सब, धनि माया हरि तेरी।

‘नागरिदास’ बिसरिेए नाहीं यह गति अति असुहाती।

काल व्याल कौ कष्ट निवारन, भजि हरि जनम संगाती॥

स्रोत
  • पोथी : नागरीदास ग्रंथावली ,
  • सिरजक : नागरीदास ,
  • संपादक : डॉ. किशोरीलाल गुप्त ,
  • प्रकाशक : नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी ,
  • संस्करण : प्रथम
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