भज मन! चरण-कंवल अविनासी।

जेताइ दीसै धरणि-गगन बिच, तेताइ सब उठ जासी॥

इस देही का गरब करणा, माटी में मिल जासी।

यो संसार चहर की बाजी, सांझ पड़्यां उड़ जासी॥

कहा भयो है भगवा पहर्यां, घर तज भये सन्यासी।

जोगी होइ जुगति नहिं जाणी, उलटि जनम फिर आसी॥

अरज करूं अबळा कर जोरे, स्याम! तुम्हारी दासी।

मीरां के प्रभु गिरधर नागर! काटो जम की फांसी॥

स्रोत
  • पोथी : मीरां मुक्तावली ,
  • सिरजक : मीरांबाई ,
  • संपादक : नरोत्तमदास स्वामी ,
  • प्रकाशक : राजस्थानी ग्रन्थागार, जोधपुर ,
  • संस्करण : प्रथम
जुड़्योड़ा विसै