कलि के लोग कुमंत्री सिगरे।
देत कुमंत्र, बिगारत मन कौं, आपुन मन के बिगरे।
एक पेट के काजहिं खोवत दोऊ लोक, सुख अनुचर।
निज स्वामी कौ लियैं फिरत है, ज्यौं गहि घर घर वनचर।
दुख अपमान कौ व्यापत नाहीं, लोभी लोभ सुखारे।
पाप भार सब वाकूं लागत, दास रहत है न्यारे।
चतुरथ आश्रम आय, देत फिर लाख बरस की नींव।
‘नागरिदास’ जानि उन सबकूं, महा पाप की सींव॥