जीवत मृतक व्है गयो वृद्ध।
होत नहीं स्वारथ परमारथ, इहिं जीबे मैं कहा सिद्ध।
उगलत कफ, खांसत, तन कांपत, देह बुद्धि बल नास्यो।
सब इ द्रिनि की सक्ति घटि गई, तन बहु रोग प्रकास्यो।
लेट्यो रहैं प्रजक द्वार बिच, उदर अहार न पचहीं।
जरा जरत मृतयागम आयो, तऊ न हरि सौ रचहीं।
पहिलैं साधन कीनो नाहीं, रहि साधन के संग।
‘नागरीदास’ लगै अब कैसै, कृष्ण भक्ति को रंग॥