जावो निरमोहियो! जाणी तेरी प्रीत।

लगन लगी जद प्रीत और ही, अब कुछ और ही रीत॥

इमरत पाइ कै विस क्यूं दीजै, कूण गांव की रीत।

मीरां के प्रभु हरि अविनासी, अपणी गरज के मीत॥

स्रोत
  • पोथी : मीरां मुक्तावली ,
  • सिरजक : मीरांबाई ,
  • संपादक : नरोत्तमदास स्वामी ,
  • प्रकाशक : राजस्थानी ग्रंथागार, जोधपुर ,
  • संस्करण : प्रथम
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