राम राइ अइया मन अपराधी।

जोइ जोइ बात जीव छिटकावै, सोई उलटि उणि नाधी॥

जासों कहौं पलक मति परसै, सोइ फेरि इन खाधी।

निस दिन निकट रहत नित निरखत, मन की घात लाधी॥

येऊ मन जोध जीव परि बैठा, पंचबाण सर साधी।

भावै नाहिं सबद सुणि तेरा, काटि रह्या यूं कांधी॥

छल बल बहुत ग्यान गुन उर मैं, और महा मन स्वादी।

रज्जब कहैं राम सुणि चुगणी, कृपा करै मन बांधी॥

स्रोत
  • पोथी : रज्जब बानी ,
  • सिरजक : रज्जब जी ,
  • संपादक : ब्रजलाल वर्मा ,
  • प्रकाशक : उपमा प्रकाशन, कानपुर ,
  • संस्करण : प्रथम
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