दरपन देखत, देखत नाहीं।

बालापन फिरि प्रगट स्याम कच, बहुरि स्वेत ह्वैं जाहीं।

तीन रूप या मुख में पलटे नहिं अयानता छूटी।

नियरे आवत मृत्यु सूझत, आँखे हिय की फूटी॥

कृष्णा-भक्ति-सुख लेत अजहूँ, वृद्ध देह दुख-रासी।

नागरिया सोई नर निहचै, जीवत नरक-निवासी॥

स्रोत
  • पोथी : राजस्थानी भाषा और साहित्य ,
  • सिरजक : नागरीदास ,
  • संपादक : मोतीलाल मनारिया ,
  • प्रकाशक : राजस्थानी ग्रंथागार, जोधपुर ,
  • संस्करण : छठा संस्करण
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