मनैं गुलाबां रो चाव घणो, गुलाब जिका लूमै

म्हारै सामां आपरी कंवळी लुणाई में झूमै;

अर ओळ्यूं में भरी जिण री कोई थ्यावस नईं,

हूं बागां खातर बिलमूं जिकै रै लोवै रो जंगळो है।

ईंरी मूरत्यां, जिणां रै सपनां में हूं बांथां भरूं,

ईंरी बखत सूं स्याह पड़ी मूरत्यां मनैं जवान लखावै।

जद हूं आंनैं जोवूं जियां आंनैं उण दिन जोई

नेवा घूमती नाचै ही चारूं मेर, जोसीली अर गुदळी।

बाग रा मोटा नींबू सौरम बरसावै, अर उठै

जाणै जूना साही बादसा अकासां कानी बधै।

जद-कदे बांरै कनैकर निसरूं अर थमती, नैड़ी जावूं,

बांरा सिखरडाळा चिरीजता म्हारा कानां माथै पड़ै।

नींबूड़ां सूं घणी दूर नईं, जुगां सूं अेक हंस

अेकलो ताल में, तिरतो मस्ती रै बस।

अणबोलो तिरै, धणो गैर-गंभीर अर धीरो,

अर आपरी जोड़ जोय नीचै जळ में ठमकै।

बाग आपरै मन में संजोवै बै चालां जिकी

जीवती है अर जिकी गुजरगी है;

बै पगचांपां संचै अणंत अर अणगिणत

भायलां री, बैर्‌यां री, बैर्‌यां री अर भायलां री।

बीतै जुगां री छांवल्यां भल चाली गळी में घूमै

फाटकां सूं महलां में, अर पाछी फाटकां;

बै घूमै रस्तां में, अर अचंभै जोवै

फंवारो, हंस अर जूनो ग्रेनाइट घमलो।

रातां जिकी दिन सूं इसी रळिया’र रळै

म्हारी आपरी उतरादी रातां बागां उतरै।

बै बोलै सांभळतां सुरगां नैं अूपरां

बै बोलै गुपत बात अर अनोखो हेत।

कंवळी, चिलकती धुंधां बिरछां सूं मधरी बिलूमै,

कंवळी धुंधां रतन अर मोती रै रंगराची।

बाग पड़्यो गुमसुम, बांरी चमक में न्हावतो

अर कठै सूं आवै ज्योत कोई जाणै नईं, नापै कियां।

अेक अवाज आई, बा हुकम देवै ही।

“अठै आव सुख सारू” आयो नूंतो

“छोड़ थारी धरती, इसी पापण, अूजड़

नांख रूस परो सदा खातर, सगळां सेती।

“थारा हाथां सूं खून उतार हूं धो नांखूं,

अर थारै हिरदै सूं अळघी कर धोर सरम,

थारी जखमी भावनावां अर थारी पीड़ हरूं

दियां सूं तनैं दूजो नांव”

सरळ, सांत हरकत में

म्हारा हाथ म्हारै कानां माथै गया, निसाणो—

नाजोगो नूंतो

म्हारी तड़पती आतमा नैं नईं भरमावै।

स्रोत
  • पोथी : लेनिन काव्य कुसुमांजळी ,
  • सिरजक : अन्ना अख्मातोवा ,
  • संपादक : रावत सारस्वत ,
  • प्रकाशक : राजस्थान भासा प्रचार सभा (जयपुर) ,
  • संस्करण : प्रथम संस्करण
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