बां रै कैवण मुजब

अळगौ-अलायदो है

म्हारो होवणो

म्हारी काया रै होवणै सूं...

ठीक है! मान लूं म्हैं,

कै नीं हूं म्हैं

फगत सरीर...

नीं हूं सरीर,

पण सरीर

क्यूं करै संभव

थारै खातर-

म्हारै होवणै नै!

होवतो रैवूंला

काया बिनां कीं

पण म्हैं

'म्हैं' तो

पकायत नीं हो सकूं

इण खोळियै रै नीं रैयां।

स्रोत
  • सिरजक : संजय आचार्य 'वरुण' ,
  • प्रकाशक : कवि रै हाथां चुणियोड़ी
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