हिरदा रा परदा पे
माँड गियो
अमिट चितराम
थारो घणो हेताळू प्रेम
थारी ओळ्यूं री असीम पीड़
मन में अस्यान उग आवै
जाणे
खेत में दबियोड़ा बीज
छांटा पड़ता ही अंकुरावै
मरुधरा-सी कळपती छाती नै
आपणी हरित्तमा सूं पाट जावै
तो
आंख्यां अणाचूक ही
सावण बण बरस जावै
थारा प्रेम री बँधवार ने
जीवण देबा सारूं
आज भी जद
अतीत रा आकास पे
मिलण रा इन्द्र-धनुष तण जावै
तो
वर्तमान रा सपना
पीड़ रा सागर-तीर सूं टकरा’र
लौटती लहर ज्यूं बिखरता
आत्मज्ञान रा रेतीला तट पे
फैंक जावै
मन री माछळी ने
अर तड़फता जीव रे च्यारूंमेर
पसर जावै
विछोह रो खार
जो, न्हं गळे उतरे
न्ह छूटे शरीर सूं
बस
किनारे पड़्यो-पड़्यो
पीर री शरशैया पे
कदी राम
कदी मौत ने पुकारे
थारो हेताळू प्रेम