यूं सांस-सांस मत धांस

तूं धांसै तद

म्हारै अंतस

गैरी चुभती जावै फांस।

म्हारी आसावां री नींव

यूं धूजै ज्यूं—

दिवलै री लौ

तेज हवा में धूजण लागै

क्यूं म्हारी अै आंख्यां थारै

चैरै माथै थिर व्है जावै

क्यूं थारी वै मुळक-मजाकां

बोली-बातां...

तूं सोवै तद यादां आवै

थारी मां तौ गूंगी है ज्यूं

आंख्यां सूं करती रैह बात।

म्हारी आंख्यां रौ पाणी

थारी सांस-सांस नै धोवै

तूं ऊजळ तन-मन सूं सगळी

धरा संवारै

बदरंगी चैरां में

खसियां रा रंग पसारै

काळी भीतां पर जगमगता

सूरज टांगै

थारै सूं राखूं आस।

तूं सांस-सांस मत धांस।

स्रोत
  • पोथी : जागती जोत काव्यांक, अंक - 4 जुलाई 1998 ,
  • सिरजक : पारस अरोड़ा ,
  • संपादक : भगवतीलाल व्यास ,
  • प्रकाशक : राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अकादमी
जुड़्योड़ा विसै