क्यूं कुचरौ, बिसर्‌योडी बातां, मत सिमरौ सैणां री घातां,

दुख दरियाव उछाळै माथै, मत भीजौ ठरठरती राताँ।

अकल बिना कैड़ो अड़काई,

हिळ मिळ हालण में चतुराई,

स्वारथ री परघै अणमापी,

कुण करसी हक री सुणवाई।

सूळी रौ सिणगार सजातां,

रंघड़ां रौ लाई बैवातां,

कितरा जुग बीत्या? बीतैला?

समता रौ संसार बसातां।

कुण जीवन रो गत उळझाई, मजलां पैला निचर गमाई,

भाटा पूज हुयौ जन भाटौ, किण गैलै पड़गी मिनखाई।

क्यूं भिचकौ? बंधणां तुड़वातौ,

क्यूं उखड़ौ? पगल्या रोपातां,

करम कियां किस्मत बदलै है,

मत भटकौ? मारग दरसातां।

दरद परायौ, कै अपणौ है, मत खिणजौ, तातौ दुखणौं है,

सुख सुपनां री मजलां अळगी, पड़णौ, उठणौ अर चलणौ है।

पर दुख रौ भाखर कटवातां,

क्यूं दबकौ, दो हाथ लगातां,

आंसूड़ों री निरमळ गंगा,

क्यूं मुकरौ मन मैल धुपातां?

कुण रौ रौ नै, बिखा घटाई, पीड़ अथग है, कठै दवाई,

मून धारियां मन घुट जासी, जीवण री है अणंत लड़ाई।

क्यूं बिखरौ सुणतां समझतां,

मत इतरौ, मनवार मनातां,

सारी घुटण रफू हो जासी,

कसमस रौ कोठार खुलातां।

स्रोत
  • पोथी : हंस करै निगराणी ,
  • सिरजक : सत्येन जोशी ,
  • प्रकाशक : राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अकादमी
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