रात सुपनै में

म्हैं देख्यो अेक उकाब

जको लालकिलै सूं उड्यो

अर आय’र बैठग्यो म्हारी छाती माथै

सै सूं पैली बो फोड़ी म्हारी आंख्यां

खींच’र बारै काढ ली जीभ

सगळै डील नैं कर दियो लोहीझांण

उणनै आघो करण सारू

म्हैं घणी बगाई लातां

घणा मार्‌या हाथ

पण बो नीं हुयो आघौ

म्हारै हाडां करतो बेजका

तीखी चूंच सूं

बतावतो रैयो कै

अब तूं नीं देख सकैलो

थारी आंख्यां सूं

अर नीं बोल सकैलो

थारी जीभ सूं...

थारै देखण अर बोलण सूं

पड़ै है जोखो म्हारै हेताळुवां रै

खूटै है म्हारो जादू

इत्तैक में खुलगी म्हारी आंख

टूटग्यो म्हारो सुपनो

पण सळवळती रैयी सुपनै री बात

म्हैं इणी आळोच में

मसळूं आंख्यां कै

सुपनो है

है बगत रो साच।

स्रोत
  • पोथी : मुळकै है कविता ,
  • सिरजक : गायत्री प्रकाशन ,
  • प्रकाशक : गायत्री प्रकाशन ,
  • संस्करण : प्रथम संस्करण
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