जाग अणछक तिरस

थूं भरिया समद सी

नैण, होठां, कंठ में,

तन-पोर में, नख-केस में, मन-प्रांण में

बैठ अणछक तिरस यूं भरिया समद सी

थूं लगा प्याऊ

कनक झारां अटूटी धार,

म्हारा प्रांण तिरपत होवै उठा लग कूढ़ियां जा

दरसणां सूं धापणो अधरम गिणीजै,

नैण सैंजळ होय थारो रूप पीवै जुगजुगां सूं

होठ थारो मद परस सिकुडया दाझ्या

कंठ में ऊग्या कांटा

रोम में रसभीड़ बोलै—

'और कूंढ़ो, और पावो'

कुण होवै तिरपत चळू भर दरसणां सूं

अेक चिमटी परस सूं, कण हेत सूं

हाय जीवण है कितो व्यापक

अलेखां रूप रस में

और पल्लो बैंत भर रो खोळ भरवा नैं

कठै मावै अणत आकास

नेतर दोय, काया पांच फुट,

अेक कोरो मन भटकतो

पण छक्योड़ा मिनख है अणगिण जगत में

जीवता जे मरय्योड़ा।

जाग उण में

जाग अणछक तिरस थूं भरिया समद सी!

स्रोत
  • पोथी : निजराणो ,
  • सिरजक : सत्य प्रकाश जोशी ,
  • संपादक : चेतन स्वामी ,
  • प्रकाशक : राजस्थानी भाषा एवं संस्कृति अकादमी, बीकानेर
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