सुंदर सारस म्हारी बहण,

सुण ले यां जीवां की कहण,

बेरण लागै अब तो रैण,

फूटा छुगल्या बणग्या नैण,

वे लड़ता बैरी दुसमन सूं

म्हूं यां तकदीरां सूं।

आधी रात ढळ्यां मत बोलै,

सरवर की तीरां सूं।

तूं तो सारस जळ की तीरां

सोवै छै जोड़ा सूं।

दूरी छै संदी काणी बातां

अटक्या रोड़ां सूं।

म्हारा तन की काठ फूटै

मन का कठफोड़ा सूं।

घुळ-घुळ ढळती काया

चरम्या जादा सूं थोड़ां सूं।

कचर्यो माथा पै चढ आवै,

हरणी आंख्यां उछळी जावै,

भाग्यो सांसां फाड़दी जावै,

सातारास्यो चक्कर खावै।

तारां छाई रात

बंधी रह जावै जंजीरां सूं।

काळा कोसां डूंगर घाट्यां

म्हारा वां को बासो।

फागण बीतै होठां में,

आंख्यां मैं यो चोमासो।

दुनियादारी की चोपड़ मैं

म्हूं गोटी वै पांसो।

व्हां बन जहर घुळयो लागै

छप्पन भोगां को कांसो।

ओळ्यूं मन मैं आग लगावै,

सपना सारी रात जगावै,

खट-खट हिवड़ा नै भरमावै,

बातां मन ही मन सरमावै।

यूं लागै ज्यूं कोई बोलै

छानो सो धीरां सूं।

स्रोत
  • पोथी : सरवर, सूरज अर संझ्या ,
  • सिरजक : प्रेमजी ‘प्रेम’ ,
  • प्रकाशक : राजस्थानी भाषा साहित्य संगम अकादमी ,
  • संस्करण : Pratham