जे नदियां जाय सागर मांय,

रणमें ल्हैरां तो मिलसी ई।

जे गेल ठिकाणै जाय मिलै,

उणमें सूळां तो मिलसी ई।

बिन ल्हैरां सूं लड़यां कठै,

मोत्यां सूं झोळयां भरया करै?

सूळां सूं उळझ्यां बिना किणनैं

मनचींत ठिकाणो मिल्या करै?

अंधार घोर सूं बिन डरप्यां,

काळी रातां में चाल मिनख

आभै री मोटी ताल मांय

दो-अेक तारा तो मिलसी ई।

भाटां रा गेला मिलै जणै,

मत डरप मिनख चलतो जा

ऊंची-नीची इण धरती सूं,

बाथां भर-भर मिलतो जा।

निसरैला कील-कांकरा भी,

पण थूं छोटो मन मत करजै

धरती री गोदयां मांय थनैं

लालां री खानां मिलसी ही।

स्रोत
  • पोथी : राजस्थली लोकचेतना री राजस्थानी तिमाही ,
  • सिरजक : आशा शर्मा ,
  • संपादक : श्याम महर्षि ,
  • प्रकाशक : राजस्थानी साहित्य-संस्कृति पीठ